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हास्य-व्यंग्य >> चूहे और आदमी में फर्क

चूहे और आदमी में फर्क

सरोजनी प्रीतम

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5322
आईएसबीएन :81-288-1543-1

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मेरी कहानियां व्यंग्य का वह प्रारूप है जो हंसी-हंसी में ही गंभीर मोड़ ले लेता है। हास्य के अनेक रूप प्रकार व मुद्राएं इस पुस्तक में समाहित की गई हैं।

Chhuhe Aur Aadami Mein Fark

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

व्यंग्य-जगत् में विख्यात डॉक्टर सरोजनी प्रीतम हिन्दी की एकमात्र ऐसी महिला व्यंग्य-लेखिका हैं, जिन्होंने अपनी रचना से ‘हंसिका’ नाम की एक नई विधा को जन्म दिया है।
आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद, ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी में नगर-जीवन’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की।

आपका समूचा लेखन व्यंग्य के प्रति समर्पित है। अब तक आपको हास्य-व्यंग्य के लिए प्रधानमंत्री द्वारा दिनकर शिखर सम्मान ‘सीता का महाप्रयाण’ पर-कामिल बुल्के अवार्ड, हास्य कविताओं पर कलाश्री पुरस्कार, ‘आखिरी स्वयंवर’ पर हिन्दी अकादमी पुरस्कार आदि प्राप्त हो चुके हैं।
आपकी 30 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

आपके हास्य उपन्यास ‘बिके हुए लोग’ पर 13 एपिसोड का हास्य धारावाहिक भी दूरदर्शन द्वारा स्वीकृत हो चुका है।
अब तक प्रकाशित हास्य-कहानियां, कविताएं, उपन्यास और बच्चों के लिए हास्य-कथाएं व कविताएं आपकी विशिष्टता है।
अब तक प्रकाशित कुछ पुस्तकें-आखिरी स्वयंवर, एक थी शांता, पोपटलाल, विरहनामा, आफत के पुलते, अँधेरे की चट्टान, सनकीबाई, उदासचंद, आशीर्वाद के फूल, डंक का डंक, लाइन पर लाइन, हंसिकाएं ही हंसिकाएं, छक्केलाल आदि।
हास्य कहानियों में विषयों की विविधता और रोचकता का पुट होता है। लेखिका की खोज परक दृष्टि हमेशा गहरे पानी पैठ कर खोजती है पर अब स्थितियां अजीब हो रही हैं, गहरे पानी पैठ कर देखो तो-पानी तो स्वच्छ किन्तु वहां सिर्फ मगरमच्छ। तट पर घोंघे, गहरे पानी में मगरमच्छ फिर संघर्षपूर्ण जिन्दगी में इतना तो ज्ञात हो न कि आखिर क्यों आदमी और चूहे में फर्क ? आज के युग में तो भेदभाव मिट रहे हैं। जाति प्रथा अब ‘जाती’ प्रथा जो जाए...बस इसी शुभकामना के साथ...कोई नई खोज करे तो अच्छा वरना युग-युग में स्थिति तो यही रहेगी कि छोटी समस्या से घबरा कर व्यक्ति को सकारात्मक सोच मंद पड़ जाती है जिससे समस्या हल होने की बजाय और बड़ी बन जाती है।

भूमिका

मेरी कहानियां व्यंग्य का वह प्रारूप है जो हंसी-हंसी में ही गंभीर मोड़ ले लेता है। हास्य के अनेक रूप प्रकार व मुद्राएं इस पुस्तक में समाहित की गई हैं। मैं भेदभाव का सर्वदा विरोध करती रही और शीर्षक से ही आप समझ गये होंगे कि कहीं भेद की भेदभरी बात...नहीं। कहीं कोई फर्क है या नहीं ? इस पुस्तक में विभिन्न विषयों ने नया रूप आकार ले लिया है।

लोग प्रायः मेरी शैली पर टिप्पणी देते रहे हैं कि कहानी होकर भी इसमें चिन्तन का तत्त्व अधिक समाहित होता है। मेरी इच्छा सदा यही रही कि मेरी कहानियां भी मुझसी ही सरल सीधी सुंदर हों। सहज प्रवाह ही कहानी को गतिमान करता है। चिन्तन मूलतः प्रवृत्ति है जो सर्वदा अन्तर्निहित रहती है। हंसिकाओं के पिछले चार दशक के अनुभव ने कहानियों के रूप में अभिव्यक्ति को पूर्णता दी है। जीवन के क्षण-क्षण के हास्य-व्यंग्य, कटु और तीखी बातें, मिर्च मसाले लगाने की प्रवृत्ति और सीधे-सीधे प्रहार न कर पाने की विवशता ही लेखन के सौष्ठव को बढ़ाती है—मैंने हर स्थिति, हरेक अवसर को अपनी जमापूंजी बना लिया कांटे भी सहेज समेट लिए। चुभन से त्रस्त-ग्रस्त होकर भी मुस्कान को यथा तथ्य रखना बल्कि उसे पैनापन देकर धारदार बनाने की कला मुझसे सीखिये। मेरी मुस्कुराहट में आंखें नम रहती हैं—शून्य को मस्तक का विराट फलक मिलता है तो वह कहीं बिंदी बनता है तो कहीं टीका...! प्रतीकों को इसी से नया अर्थ भी मिलता है और यही ऐसे शून्य में परिणत होता है कि संज्ञा शून्य की स्थितियां उत्पन्न होती हैं। पुरुष सर्वदा स्वनाम धन्य रहा है। उसके प्रति मेरे मन में अगाध श्रद्धा, असीम प्रेम और सम्मान है। उसके साथ तो सदा सौभाग्य जुड़े रहे और उसे पाकर स्त्री सौभाग्यशाली हो पाई अथवा यों कहें कि पुरुष शत-प्रतिशत भाग्य है तथा किसी स्त्री से भी जुड़कर वह तो एक सौ एक भाग्यकुमार नहीं हुआ जबकि स्त्री शत-प्रतिशत भाग्यवती यानी सौभाग्यवती हो जाती है। वही स्त्री की ऊर्जा क्षमता, विश्वास, आस्था, सबका केन्द्र बिन्दु है ताकि कितना ही सत्य को झुठलायें, वही उसका अस्तित्त्व भी है—उससे ऊर्जा प्राप्त कर उसे वही लौटाने का यानी प्रेम स्नेह, मोह, माया, ममता का आदान-प्रदान ही...कथन लेखन तनाव आदि का जन्मदाता है। सच कहें तो दोनों अस्तित्त्व ही एक दूसरे से हैं...फिर भी शेष पर सोध हो रहे हैं और अमरीका में इस बात पर शोध शुरू हुआ कि दो सामाजिक जानवरों में होड़ लगायें तो ?

आदमी और चूहे में फर्क-
शोध प्रतिशोध के यह स्वर सिर्फ इसी अनुसंधान पर आधारित हैं-
एक विदेशी ने बड़े शान से भरी मीड़ में कहा था हम ऐसी छड़ी घुमा सकते हैं जिसमें शेर को चूहा बनते देर नहीं लगती...वहीं बैठी एक महिला की हंसी छूट गयी थी और उसने कहा था ‘यह काम हमारे यहां तो महिलाओं के बायें हाथ का खेल है।’ हतप्रभ होकर आदमी और चूहे की समानता पर उन्होंने करोड़ों रुपये खर्च किये हैं...अमेरिका हर अनुसंधान पर करोड़ों खर्च कर देता है चाहे वह सर्वविदित तथ्य ही क्यों न हो।
 
प्रस्तुत हास्य कहानियों में विषयों की विविधता और रोचकता का पुट है। मेरी खोजपरक दृष्टि हमेशा गहरे पानी पैठ कर खोजती है पर अब स्थितियां अजीब हो रही हैं, ‘गहरे पानी पैठ कर देखा तो—पानी तो स्वच्छ था किन्तु वहां सिर्फ मगरमच्छ था।’ तट पर घोंघे गहरे पानी में मगरमच्छ फिर संघर्ष पूर्ण जिंदगी में इतना तो ज्ञात हो न कि आखिर आदमी और चूहे में फर्क क्यों-आज के युग में तो भेदभाव मिट रहे हैं। जाति प्रथा अब ‘जाती’ प्रथा हो जाए...बस इसी शुभकामना के साथ...कोई नई खोज करे तो अच्छा वरना युग-युग में स्थिति तो यही रहेगी।
‘चूहे को देखकर, चीखी उछल पड़ी।
घबरा गई...
चैन की सांस लेने-भेड़िये की
बाहों में आ गई।’

सरोजनी प्रीतम

1
उसका सवाल

चारों ओर धूम धड़ाका, बैंड वालों की आवाजें, शोर ही शोर। दूल्हा घोड़ी से छलांग मार कर नीचे उतर आया था। और उसे वरमाला पहनाने के लिए मानसी नाम की शैतान लड़की दुल्हन बन कर पंडाल की तरफ जा रही थी। मां उसे बार-बार आखें झुकाने को कहती, पर वह आंखें फाड़-फाड़ कर इधर-उधर देखने लगी, किसने कैसी साड़ी पहनी है, कैसा हेयर स्टाइल है। पीछे से मां ने उसका घूंघट और अधिक लम्बा कर दिया। मानसी झुंझला उठी। पंडाल की जरा सी दूरी जो एक मिनट में तय हो सकती थी उसमें एक घंटा लगाया जा रहा था। हर कोई उसका घूंघट उठा-उठा कर झांक-झांक कर देख रहा था। मानसी का वश चलता तो एक झापड़ लगाकर सीधा कर देती, पर दोनों बाहों को उसकी सहेलियों ने पकड़ रखा था। हाथों में जयमाला थी ताकि वह हाथ न चला सके।
 
एम.ए. करते समय वह डैडी का टेलीग्राम पाकर होस्टल से दिल्ली लौट आई थी और वहां अपनी शादी की तैयारियां देखकर वह झुंझला उठी थी। वह चीखी, सिर पटका, पर शादी नहीं रुकी। आखिर उसने लड़के के बारे में मां से पूछा तो वह बोल उठी, ‘लड़के की मां सोशल वर्कर, बाप इंजीनियर, बहन डॉक्टर, भाई अंडर सेक्रेटरी...। और लड़का ?’ वह पूछना चाहती थी। पर ताई की घूरती आंखों ने उसे मना कर दिया। चाची ने उसके बालों को खींच कर तेल डाल दिया। मौसी ने उबटन लगाया और रोज घर में ढोलक बजने लगी। गीत होते रहे। वह परेशान हो उठी। और शादी की तिथि आ पहुंची।
उसने देखा उसके हाथों में चूड़ियां हैं। गले में गुलूबंद। कानों में बड़े-बड़े झुमके उसका मुंह रगड़-रगड़ कर साफ किया गया, फिर फाउन्डेशन पाउडर, रूज, बैंदी, हाथों में मेंहदी, पांवों में महावर और फिर इतना सब लादे उसे जयमाला पहनाने का आदेश मिला। वह चुपचाप आगे बढ़ी और जयमाला गले में ऐसे डाल दी जैसे बोझ से छुटकारा मिला, मां ने गरदन झुकाये रहने की हिदायत दी थी और ताई ने आंखों को झुकाने को कहा था, तो वह झल्ला उठी थी। बोली थी—‘ओ हो। गर्दन झुकाऊंगी तो सारी चीजें, अपने आप झुक जाएंगी आंखें, कान, नाक, मुंह...।

‘तेरी नहीं झुकेगी, हां, आंखें उचक-उचक कर देखती रहेंगी हां, ताई बड़बड़ाई। मां ने जोर से मानसी को चुप करा दिया।
पंडाल में बैठते ही उसे शैतानी सूझने लगी। उसने सामने बैठे पंडित पर नज़र दौड़ाई। उसके गंजे सिर पर पान के आकार का एक द्वीप बना हुआ था जहां से एक लम्बी चोटी लटक रही थी और मानसी सोचने लगी कि इस गांठ में अगर गेंद का फूल लटका दिया जाए तो ? तभी किसी ने उसकी गोद में नारियल डाल दिया। ‘ऊंहूं, गेंदे का फूल नहीं, यह नारियल ठीक रहेगा।’ और तब उसे लगा कि उसने नारियल पंडित जी की चोटी से बांध दिया है और नारियल के भार से पंडित जी की चोटी सिर से उखड़ रही है। सिर गरदन से उखड़ रहा है। गरदन धड़ से उखड़ रही है। और धड़...मानसी आंखें फाड़े एकटक देख रही थी कि तभी पीछे से मांजी ने उसके सिर को नीचे की ओर झुका दिया। ताई उसे घूर-घूर कर नीची आंखें करने के लिए कह रही थी। मां का वश चलता तो इस शैतान लड़की की पलकों पर सीमेंट करा देती ताकि वह झुकी तो रहती।
मानसी ने सिर नीचे किया। फिर नीची नज़र से बांई ओर बैठे दूल्हे को देखा। वह फूलों के बीच अपना मुंह छिपाए बैठा था।
‘जरूर भैंगा या काना होगा। नहीं तो ऐसे मुंह छिपाने की क्या जरूरत थी ? उसका जी चाहा हौले से उसके मुंह से दो चार लड़िया हटा कर देख ले। वह थोड़ी खिसकने को थी कि पीछे...मौसी ने झकझोरा, मानसी जरा घूंघट...और इससे पहले कि मानसी उन्हें घूर कर देखती, मौसी ने उसकी नाक तक घूंघट लम्बा कर दिया।

अब पंडित मन्त्र पढ़ने लगा था। मानसी की नजर ताई के पीछे छोटी सी चौटी पर पड़ी।
‘हां ताई को जरूर मजा चखाना चाहिए’ यही सोचकर उसने फिर ताई को देखा-‘ऊंहूं, चोटी है या छिपकली..अरे हां, यह ठीक है, ताई से कहूंगी कि हाय राम, यह तो उखड़ती ही नहीं’। और वह जोर से ताली बजाने ही वाली थी कि पंडित जी ने उसका हाथ पकड़ कर दूल्हे के हाथ में दे दिया।
पंडित रात के दस बजे से सुबह साढ़े तीन बजे तक मानो किसी शादी के इम्तिहान में बैठा हो। पंडित बार-बार रटे हुए मंत्र दोहरा रहा था। फिर दुल्हा-दुल्हन को कहा गया-
‘अब फेरे होंगे, बेटी, तुम्हें पति के पीछे-पीछे चलना होगा’ पंडित जी ने कहा।
‘मैं पीछे नहीं चलूंगी। मैं किसी के पीछे नहीं चल सकती। मैं कभी पीछे नहीं रही...न।’
‘ऐं मानसी चुप’ मां ने उसका कन्धा पकड़ कर दूल्हे के पीछे धकेल दिया। दो ही फेरे लेकर जैसे वह थक गई। फिर वह पूछना चाहती थी कि क्या सभी फेरे पैदल ही होंगे ? इन सात फेरों की जगह मोटर में बिठाकर कनॉटप्लेस के सात चक्कर क्यों नहीं लगवा दिए जाते।

सात फेरे हुए तो वह धम्म से बैठ गई जैसे वह बहुत थक गई हो। पर यह क्या ? अब क्या है ? सारे उस पर आशीर्वाद बरसाने लगे। सुखी सुहागिन आदि के आशीर्वाद।
तभी मां ने उसे सास ननदों के पैर छूने को कहा। मानसी अनमनी सी उठी। पर सास के काले मौटे पैर देखकर उसे घिन हो आई। ‘ओह, कम से कम पैर तो धो लेती। ऊंहूं, मैं नहीं छूती, यह पैर ठीक नहीं।’

उसने मां की ओर देखा। मां ने उसे जबरदस्ती झुका दिया। मानसी को लगा वह पैर नहीं पैर पोंछने वाला पायदान है। अभी वे पैर खत्म ही नहीं हुए थे कि और पैर, फिर और पैर, सास की बहनें, सास की बेटियां, सास की सास और पैर ही पैर—मानसी को लगा कि भवानी दुर्गा ने सब के बीस-बीस पैर लगा दिए हैं और पैर ही खत्म होने को नहीं आ रहे थे।

इन सब के आशीर्वाद खत्म ही हुए थे कि पंडित ने फिर आशीर्वाद देने शुरु कर दिये, ‘आ...हा...लड़की कितनी सुघड़ सयानी है, होशियार है, विदुषी है।’
 
तभी उसे लगा पंडित आगे कह रहा है, लड़का भी क्या ढूंढ़ा है, लड़की विदुषी है तो लड़का विदूषक है। हैं हैं हैं।’ उसे लगा हंसते-हंसते पंडित जी की बत्तीसी नीचे गिर पड़ी है। और वह जोर से हंस पड़ी। मौसी ने चटपट उसका घूंघट लम्बा कर दिया और उसे अपनी ओट देकर विदाई की तैयारियां करने लगी।

उसने देखा कि सास और ननदें धड़ाधड़ उसके घर का नया समान बटोर रही हैं। ससुरजी हर चीज़ को उलट पलट कर देख रहे हैं। मामी की आंखें छलछला रही हैं। छोटी बहन एक कोने में चुप खड़ी है। बड़े भैया की कार, जिसमें अक्सर वह सैर करने की जिद किया करती थी, आज सेहरे से लदी, उसे लिवा ले जाने को तैयार है।
वह सोच रही थी कि भैया से कहेगी, ‘बस भैया, आज तो सारी दिल्ली घुमा दो।’ पर उसको ऐसे चुप बैठे देखकर वह भी चुप हो गई।

छोटी उससे लिपट कर रोई तो मानसी को याद आया कि वह कहीं भी जाने लगती तो छोटी ऐसे ही रोना धोना शुरू कर दिया करती थी और पिक्चर कैंसिल हो जाती थी, तो कभी घूमना फिरना। उसने घूंघट थोड़ा और लम्बा खींच लिया। सब रो रहे थे।
मानसी ने घूंघट की आड़ ले ली और धीरे-धीरे भैया की कार उसे ससुराल छोड़ आई।
सारे चेहरे अजनबी। सारे चेहरे नए। अब उसे कुछ घबराहट सी महसूस हुई। वह तो ससुराल है, जहां सारे लॉ पढ़े हुए, सिस्टर इन लॉ, ब्रदर इन लॉ, फादर इन लॉ, कोई बैरिस्टर बन खड़ा होगा तो कोई विपक्ष का वकील।
रात भर उकड़ूं बैठे रहने के कारण उसकी गरदन कुछ दुखने लगी थी। पर वह कहे किससे ? चारों ननदें उसके पास आई और कनखियों से देखने लगी। एक ने कहा, ‘भइया, कहां गए, भाभी को भेजो न।’
तभी मांजी आ पहुंची और बेटियों से बोलीं, ‘मानसी को तैयार कर दो।’

एक ने उसके जूड़े को खोलकर उसके बाल उलट-पलट किये फिर सूरत देखकर ज़ोरों से हंसी खींच-खींचकर बालों की चोटी कर दी दूसरी ने कान के झुमके ज़ोर से उतारे और बालियां पहनाने के लिए जैसे कान में नया छेद करने लगी थी। मानसी चीखी तो तीसरी ने उसके गालों पर ढेर सारी खड़िया लगा दी चौथी ने गले का हार उतार कर मोती की माला पहनाई फिर उसके मुंह पर पाऊडर थोप दिया। आंखों के पास काजल का क्रॉस लगा कर बोली, ‘यह मुंह गलत हो गया-सारी हंसी और वहां से एकदम भाग खड़ी हुई।

मानसी ने अपने आपको शीशे में देखा तो दूल्हे को देखकर घबरा गई चेहरे पर घूंघट अपने आप नीचे खिसक आया...।
दूल्हे ने उसकी ठुड्डी को प्यार से छुआ तो जाने उसे कैसे लगने लगा था...मुंह पर क्रॉस...
उसकी हालत वही थी जैसे कोई बालक अपना क्रॉस लगा हुआ सवाल मास्टर जी को दिखाने से घबरा रहा हो।

2
एक ही बात


केतकी ने पड़ोस का दरवाजा खटखटाया और ज्योंही बहूजी बाहर आई, तो एकदम बोली, ‘बहू, चूहे को डालने के लिए सूखी रोटी होगी तो देना। मांजी बता रही थी, बहू के हाथ की सूखी रोटियां तो कोई चूहा भी न खाये, धन्य है बेटा जिसने सारी उमर ऐसी रोटियां खाने का बीड़ा उठाया है, मेरे तो पेट में इन्हीं रोटियों से ऐसा दर्द रहता है कि अब तो डॉक्टर भी इलाज करने से मना करने लगा है।

‘अरे बहू रानी, कसूर तो उमर का होता है। जब कुछ पचता ही नहीं और दोष हमारा औरों के मत्थे मढ़ देते हैं। अरे मढ़ना ही है तो बहुओं को घर में ऐसे मढ़ो जैसे नगीना अंगूठी में मढ़ा जाता है। अरे बहुएं तो घर-का श्रृंगार होती हैं। श्रृंगार भी सच कहें तो तभी तक सहेंगे जब तक खाने-पहनने की उमर हो। तुम्हारी सासुजी तो कहती थी, खाने-पीने की उमर तो इसी घर में आकर इसकी शुरू हुई है, वरना चार फटी साड़ियां लाई थी, न गहने न बर्तन। क्यों बहू, बर्तन न लाई तो भी इस घर में हर रोज बर्तन खनके कैसे ? अरे कहीं कोई भांडे पटकने की आवाज आती है तो मेरा तो कलेजा मुंह को आता है। लगता है सुशीला बहुरानी पर बर्तन फेंके जा रहे हैं। मैं तो कहती हूं बेटियों को दहेज में ऐसे-ऐसे बर्तन दो जो कोई फेंके, मारे या उड़न तश्तरी की तरह उड़ाये तो वापस लौटकर बर्तन के टोकरे में ही पहुंचे। देश ने कितनी प्रगति कर ली पर ऐसे बर्तन बनाने वाली एक कम्पनी ने आई जो बर्तन ठीक ढंग से बना सके। अरे बर्तन तो बर्तन है बरतने के लिए। इसके अलावा कोई प्रयोग करने लगते तो बर्तनों की कन्नियां काट लें, कटोरा मुंह झुलसा दे। कलुछी चमचे तो होते ही चलाने की चीज हैं, लेकिन अगर अस्त्र-शस्त्र की तरह इनका प्रयोग होना होता तो इनके लिए भी म्यान तो होती। हरेक स्त्री इसे कमर में धारण करती, खुरपा कलुछी वगैरा ही घरेलूपन की निशानी होती।

साफ पता चल जाता, कौन सिर्फ घरेलू बर्तन मांजने कपड़े धोने और धूप में बाल सफेद करने वाली है और कौन पढ़ी-लिखी कलम, पेन्सिल पेन चलाकर बड़े-बड़े अफसरों को मात करने वाली है। पर आजकल तो यह फर्क यह भी मिटता ही जा रहा है। मैं तो तुम्हीं को देखती हूं न बहू रानी, थक-हारकर घर आती हो तो यहां काम-काज में लग जाती हो, दिन-रात रोटियां बनाना, पापड़ बेलना कोई आसान काम नहीं है, और उस पर गली-गली में इन रोटियों की यों चर्चा कि रोटियां सूखी, अरी बहू रानी सूखी रोटियों की बात पर मैंने तो उस दिन गुस्से से कह दिया था, सूखी रोटियां तो अच्छी, पानी में भिगो दो या सब्जी हो तो इसमें झुबोकर रख दो, तो खाई तो जा सकती हैं। तेरा सूखा मरियल बेटा तो ऐसा लगता है कि घड़ों पानी डाल दो तो भी उस पर बूंद भर न ठहरे, पता नहीं इतनी पढ़ी-लिखी लड़की मिली कैसे ? मेये यहां भी आई थी तेरी सास, रिश्ता लेकर। मेरी बहन की लड़की भी दफ्तर में अफसर थी तेरी तरह। आयी वह तो फटाक से बोली-मौसी, लड़के की शक्ल-सूरत नहीं, कद नहीं, अच्छी नौकरी नहीं पर खानदान तो अच्छा हो। जिसकी अम्मा औरों के घर का काम-काज करके बच्चों का पेट पालती रही हो, उस घर में जाकर क्या करूं। पता नहीं तुम पर क्या जादू किया बहू कि तुम तो आ ही गई इस घर में। मैंने तो सुना, अब तुम्हारे पति की नौकरी भी जाती रहेगी। अरे घबराना मत बहू, आजकल तो एक चूहा भी नौकरी देने में समरथ हो गया है। देखो न मुझे ही देखो, पड़ोस के पांचों घर छोड़कर मैं भी तो तुम्हीं से चूहे के लिए सूखी रोटी मांगने आई। नरम रोटी मक्खन टोस्ट केक के टुकड़े वगैरा तो चूहों को बेहद पसन्द है पर तुम तो जानती हो, चूहे में भी आदमी जैसे गुण तो हैं...अच्छा खाना-पानी मिले तो वहीं पसर जाते हैं। कुनबे समेत यों आ धमकते हैं कि बस जब तक मेहमान भगाने की...नहीं-नहीं चूहे भगाने की दवा न छिड़को, हिलने का नाम ही नहीं लेते।

अरी बहूरानी, जैसे चूहे भगाने की दवा मिलती है, वैसे ही कहीं क्या मेहमान भगाने की दवा नहीं मिलती क्या ? छिड़क दो तो दूर-दूर से आने वालों के भी कदम मुड़ जायें। अपने आप भाग जायें। अरी यही दवा मिल जाए तो मैं इसी का स्टॉल लगाकर बैठ जाऊं। पूरे मुहल्ले की परेशानी दूर कर दूं। वैसे परेशान करने के तो अच्छे से अच्छे अन्दाज भी मैं जानती हूं। तुम भी जानती ही हो...वरना आज यों चूहों के लिए सूखी रोटी ढूंढ़ते वक्त मुझे तुम्हारा ही दरवाजा क्यों खटखटाना पड़ता। सच बताना बहू रानी, तुम जो रोटी पकाती हो, वह किस मिट्टी की बनी होती है, जो बनते ही सूखी हो जाती है, खाते ही कांच के टुकडों-सी पेट में शूल बन जाती है और शूल बनते ही जगह-जगह इसकी चर्चा आरम्भ हो जाती है। यों तो चर्चा करने लायक कुछ भी बनाना हो तो उसे औरों से भिन्न होना जरूरी है। इसी भिन्नता के मायने में ही मैं तुम्हारी तारीफ करती हूं कि तुम्हारी रोटी पाकर कम से कम कोई चूहा हमारे घर के चूहेदान में भी आ फंसेगा। अरे बहू, यह चूहेदान भी तुम्हारे घर का ही है। मांजी ही दे गई थी। मैंने तो हंसकर कह भी दिया था आपने चूहेदान, दान करके बड़े पुण्य का काम किया है वरना आजकल ऐसे उदार लोग कहां ! जिस युग में दया, करुणा, ममता उदारता आदि की भावना उठती जा रही है, उसी युग में तुम्हारी दान करने की भावना का डंका पिटता रहेगा पर हाय ! उस चूहेदान में अपने घर की बहूरानी के हाथ की पकी कच्ची मोटी सूखी सड़ी रोटी का टुकड़ा भी लगा देती तो आज मुझे यहां दरवाजे पर बाहर खड़े होकर, घंटों भाषण पिला-पिलाकर एक सूखी रोटी के टुकड़े के लिए भीख तो न मांगनी पड़ती...।’
बहू को जाने सहसा क्या हुआ, वह भीतर गई और खाली हाथ लौट आई। केतकी ने फटी-फटी आँखों से देखा चौकन्ने कानों से सुना, वह कह रही थी, ‘आज तो ‘ये’ खाना ले जा चुके हैं। कल दो टिफिन पैक कर दूंगी एक अपने उनके लिए, एक आपके चूहे के लिए मेरे लिए तो एक ही बात है।’
  


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